— महिलाओं को राजनीतिक सशक्त करने के लिए 50% दिया गया ग्राम पंचायतों में आरक्षण
फकीरचंद भगत, पठानकोट ग्राम पंचायतों में महिलाओं की आजादी आज भी अधूरी है। इसका कारण यह है कि सरपंची का साफा तो भले ही महिलाओं के सिर पर पहना दिया जाता है लेकिन सरपंची संबंधित कामकाज व सत्ता की चाबी उनके पति संभालते हैं। यही नहीं सरपंची कामकाज से संबंधित अधिकारियों, पुलिस मामलों आदि के दौरान वह खुद ही जाकर मिलते हैं। हैरानी की बात यह है कि महिलाओं के लिए आरक्षित क्षेत्रों के सरपंचों से राबता कायम करने वाले अधिकारी भी तमाम अधिकारी भी इस ओर ध्यान नहीं देते। हालांकि पंचायती राज विभाग में इससे अपराधिक कृत्य घोषित किया गया है। इसी बात का फायदा संबंधित अधिकारी खूब उठाते हैं, इसके साथ ही विकास कार्यों के लिए भेजी गई निधियों का अधिकारी मिलीभगत से खूब खिचड़ी पकाते हैं। महिला सरपंच के पतियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वह बेखौफ होकर पंचायत कार्यालय में उनकी कुर्सी पर बैठ जाते हैं।बता दें कि महिलाओं को राजनीतिक सशक्त करने के लिए ग्राम पंचायतों में 50% महिलाओं को आरक्षण दिया गया है। यही नहीं इन पंचायतों में महिलाओं को विशेष दर्जा दिया गया है जिसमें उनके फैसलों में कोई भी परिवारिक मेंबर दखलंदाजी नहीं कर सकता। अगर सरपंची संबंधी कार्यों को उनके पतियों द्वारा ही देखा जाना है तो फिर आरक्षण का क्या फायदा..?यहीं नहीं, देखने में हर बार यही सामने आता है कि पंचायत संबंधी प्रत्येक कार्य में उनके परिवार की दखलअंदाजी रहती है। सरपंची की अधूरी जानकारी के अभाव में ग्राम पंचायतों से संबंधित सचिव व उच्चाधिकारी उनके पद का पूरा लाभ उठाते हैं। गांव की सत्ता चलाने तक में सचिवों की पूरी दखलअंदाजी रहती है।
पंचायती कार्यों में रहता है परिवार का पूरा दखल-
ग्राम पंचायतों में अक्सर देखा गया है कि भले ही सरपंच का साफा उनके सिर पर पहना दिया जाता है लेकिन, गांव की सरकार चलाने में तो परिवार का पूरा दखल रहता है। जबकि पढ़े लिखे लोगों का कहना है कि अगर कुर्सी पर निडर, साहसी महिला बैठी तो गए सभी फैसले खुद लेने के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों का विकास भी पूरे धौंस के साथ करवा सकती है।
सरपंचों का कार्यभार उनके पति न संभाले-
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करीब 5 साल पहले राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस समारोह में पंचपति राज की संस्कृति की ओर इशारा किया था। उनका मतलब स्पष्ट था कि पंचायती राज संस्थाओं, विशेषकर ग्राम पंचायत में निर्वाचित महिला सरपंचों का कार्यभार उनके पति न संभालें। यह समस्या विकराल रूप धारण करती गई है कि पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षित हैं। ऐसे में महिलाओं के सशक्तिकरण होने बजाय उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्यों का सशक्तीकरण हो रहा है।
मोहरे के रूप में प्रयोग होती है महिला सरपंच-
पंजाब में करीब 11 हजार से ज्यादा ग्राम पंचायतों जिसमें 50 प्रतिशत पर महिला आरक्षण घोषित हुआ है। यह हाल पिछले ग्राम पंचायत चुनाव में भी था, जिस पर आज भी ग्राम पंचायत में सरपंचपति या प्रतिनिधि कहलाते पति ही हैं। दरअसल, पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद आरक्षित सीट पर पुरुष चुनाव नहीं लड़ सकते। इसलिए वे अक्सर अपनी पत्नी को चुनाव में खड़ा कर देते हैं और जीतने के बाद अपना दबदबा कायम रखते हैं। वे अपनी पत्नी का मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
धन की आवक पर सरपंच की रहती है गिद्ध दृष्टि-
पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारों ने कई सरकारी योजना लागू की है, जिन पर ग्राम पंचायतों के सहयोग से अमल किया जाता है। इन योजनाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों से बड़े पैमाने पर निधियां मिलती हैं। सरपंच अपने विवेक के आधार पर विकास कार्य करवा सकता है। धन की इस आवक पर सरपंचपति की गिद्ध दृष्टि रहती है और वे ग्राम सचिव या अन्य अधिकारियों की मिलीभगत से घोटाले-गबन कर बड़ी राशि की बंदरबांट कर लेते हैं।